Neki By Premchand - Hindi Urdu story "Neki" by Munshi Premchand read by Smt. Shanno Aggarwal
नेकी
सावन का महीना था। रेवती रानी ने पांव में मेहंदी रचायी, मांग-चोटी संवारी और तब अपनी बूढ़ी सास ने जाकर बोली—अम्मां जी, आज भी मेला देखने जाऊँगी।
रेवती पण्डित चिन्तामणि की पत्नी थी। पण्डित जी ने सरस्वती की पूजा में ज्यादा लाभ न देखकर लक्ष्मी देवी की पूजा करनी शुरू की थी। लेन-देन का कार-बार करते थे मगर और महाजनों के विपरीत खास-खास हालतों के सिवा पच्चीस फीसदी से ज्यादा सूद लेना उचित न समझते थे।
रेवती की सास बच्चे को गोद में लिये खटोले पर बैठी थी। बहू की बात सुनकर बोली—भीग जाओगी तो बच्चे को जुकाम हो जायगा।
रेवती—नहीं अम्मां, कुछ देर न लगेगी, अभी चली आऊँगी।
रेवती के दो बच्चे थे—एक लड़का, दूसरी लड़की। लड़की अभी गोद में थी और लड़का हीरामन सातवें साल में था। रेवती ने उसे अच्छे-अच्छे कपड़े पहनाये। नजर लगने से बचाने के लिए माथे और गालों पर काजल के टीके लगा दिये, गुड़ियॉँ पीटने के लिए एक अच्छी रंगीन छड़ी दे दी और अपनी सहेलियां के साथ मेला देखने चली।
कीरत सागर के किनारे औरतों का बड़ा जमघट था। नीलगूं घटाएं छायी हुई थीं। औरतें सोलह सिंगार किए सागर के खुले हुए हरे-भरे सुन्दर मैदान में सावन की रिमझिम वर्षा की बहार लूट रही थीं। शाखों में झूले पड़े थे। कोई झूला झूलती कोई मल्हार गाती, कोई सागर के किनारे बैठी लहरों से खेलती। ठंडी-ठंडी खुशगवार पानी की हलकी-हलकी फुहार पहाड़ियों की निखरी हुई हरियावल, लहरों के दिलकश झकोले मौसम को ऐसा बना रहे थे कि उसमें संयम टिक न पाता था।
आज गुड़ियों की विदाई है। गुड़ियां अपनी ससुराल जायेंगी। कुंआरी लड़कियॉँ हाथ-पॉँव में मेंहदी रचाये गुड़ियों को गहने-कपड़े से सजाये उन्हें विदा करने आयी हैं। उन्हें पानी में बहाती हैं और छकछक-कर सावन के गीत गाती हैं। मगर सुख-चैन के आंचल से निकलते ही इन लाड़-प्यार में पली हुई गुड़ियों पर चारों तरफ से छड़ियों और लकड़ियों की बौछार होने लगती है।
रेवती यह सैर देख रही थी और हीरामन सागर की सीढ़ियों पर और लड़कियों के साथ गुड़ियॉँ पीटने में लगा हुआ था। सीढ़ियों पर काई लगी हुई थीं अचानक उसका पांव फिसला तो पानी में जा पड़ा। रेवती चीख मारकर दौड़ी और सर पीटने लगी। दम के दम में वहॉँ मर्दो और औरतों का ठट लग गया मगर यह किसी की इन्सानियत तकाजा न करती थी कि पानी में जाकर मुमकिन हो तो बच्चे की जान बचाये। संवारे हुए बाल न बिखर जायेंगे! धुली हुई धोती न भींग जाएगी! कितने ही मर्दो के दिलों में यह मर्दाना खयाल आ रहे थे। दस मिनट गुजरे गयें मगर कोई आदमी हिम्मत करता नजर न आया। गरीब रेवती पछाड़े खा रही थीं अचानक उधर से एक आदमी अपने घोड़े पर सवार चला जाता था। यह भीड़ देखकर उतर पड़ा और एक तमाशाई से पूछा—यह कैसी भीड़ है? तमाशाई ने जवाब दिया—एक लड़का डूब गया है ।
मुसाफिर –कहां?
तमाशाई—जहां वह औरत खड़ी रो रही है।
मुसाफिर ने फौरन अपनी गाढ़े की मिर्जई उतारी और धोती कसकर पानी में कूद पड़ा। चारो तरफ सन्नाटा छा गया। लोग हैरान थे कि यह आदमी कौन हैं। उसने पहला गोता लगाया, लड़के की टोपी मिली। दूसरा गोता लगाया तो उसकी छड़ी हाथ में लगी और तीसरे गोते के बाद जब ऊपर आया तो लड़का उसकी गोद में था। तमाशाइयों ने जोर से वाह-वाह का नारा बुलन्द किया। मां दौड़कर बच्चे से लिपट गयी। इसी बीच पण्डित चिन्तामणि के और कई मित्र आ पहुँचे और लड़के को होश में लाने की फिक्र करने लगे। आध घण्टे में लड़के ने आँखें खोल दीं। लोगों की जान में जान आई। डाक्टर साहब ने कहा—अगर लड़का दो मिनट पानी में रहता तो बचना असम्भव था। मगर जब लोग अपने गुमनाम भलाई करने वाले को ढूंढ़ने लगे तो उसका कहीं पता न था। चारों तरफ आदमी दौड़ाये, सारा मेला छान मारा, मगर वह नजर न आया।
2
बीस साल गुजर गए। पण्डित चिन्तामणि का कारोबार रोज ब रोज बढ़ता गया। इस बीच में उसकी मां ने सातों यात्राएं कीं और मरीं तो ठाकुरद्वारा तैयार हुआ। रेवती बहू से सास बनी, लेन-देन, बही-खाता हीरामणि के साथ में आया हीरामणि अब एक हष्ट-पुष्ट लम्बा-तगड़ा नौजवान था। बहुत अच्छे स्वभाव का, नेक। कभी-कभी बाप से छिपाकर गरीब असामियों को यों ही कर्ज दे दिया करता। चिन्तामणि ने कई बार इस अपराध के लिए बेटे को ऑंखें दिखाई थीं और अलग कर देने की धमकी दी थी। हीरामणि ने एक बार एक संस्कृत पाठशाला के लिए पचास रुपया चन्दा दिया। पण्डित जी उस पर ऐसे क्रुद्ध हुए कि दो दिन तक खाना नहीं खाया । ऐसे अप्रिय प्रसंग आये दिन होते रहते थे, इन्हीं कारणों से हीरामणि की तबीयत बाप से कुछ खिंची रहती थीं। मगर उसकी या सारी शरारतें हमेशा रेवती की साजिश से हुआ करती थीं। जब कस्बे की गरीब विधवायें या जमींदार के सताये हुए असामियों की औरतें रेवती के पास आकर हीरामणि को आंचल फैला—फैलाकर दुआएं देने लगती तो उसे ऐसा मालूम होता कि मुझसे ज्यादा भाग्यवान और मेरे बेटे से ज्यादा नेक आदमी दुनिया में कोई न होगा। तब उसे बरबस वह दिन याद आ जाता तब हीरामणि कीरत सागर में डूब गया था और उस आदमी की तस्वीर उसकी आँखों के सामने खड़ी हो जाती जिसने उसके लाल को डूबने से बचाया था। उसके दिल की गहराई से दुआ निकलती और ऐसा जी चाहता कि उसे देख पाती तो उसके पांव पर गिर पड़ती। उसे अब पक्का विश्वास हो गया था कि वह मनुष्य न था बल्कि कोई देवता था। वह अब उसी खटोले पर बैठी हुई, जिस पर उसकी सास बैठती थी, अपने दोनों पोतों को खिलाया करती थी।
आज हीरामणि की सत्ताईसवीं सालगिरह थी। रेवती के लिए यह दिन साल के दिनों में सबसे अधिक शुभ था। आज उसका दया का हाथ खूब उदारता दिखलाता था और यही एक अनुचित खर्च था जिसमें पण्डित चिन्तामणि भी शरीक हो जाते थे। आज के दिन वह बहुत खुश होती और बहुत रोती और आज अपने गुमनाम भलाई करनेवाले के लिए उसके दिल से जो दुआएँ निकलतीं वह दिल और दिमाग की अच्छी से अच्छी भावनाओं में रंगी होती थीं। उसी दिन की बदौलत तो आज मुझे यह दिन और यह सुख देखना नसीब हुआ है!
३
एक दिन हीरामणि ने आकर रेवती से कहा—अम्मां, श्रीपुर नीलाम पर चढ़ा हुआ है, कहो तो मैं भी दाम लगाऊं।
रेवती—सोलहो आना है?
हीरामणि—सोलहो आना। अच्छा गांव है। न बड़ा न छोटा। यहॉँ से दस कोस है। बीस हजार तक बोली चढ़ चुकी है। सौ-दौ सौ में खत्म हो जायगी।
रेवती-अपने दादा से तो पूछो
हीरामणि—उनके साथ दो घंटे तक माथापच्ची करने की किसे फुरसत है।
हीरामणि अब घर का मालिक हो गया था और चिन्तामणि की एक न चलने पाती। वह गरीब अब ऐनक लगाये एक गद्दे पर बैठे अपना वक्त खांसने में खर्च करते थे।
दूसरे दिन हीरामणि के नाम पर श्रीपुर खत्म हो गया। महाजन से जमींदार हुए अपने मुनीम और दो चपरासियों को लेकर गांव की सैर करने चले। श्रीपुरवालों को खबर हुई। नयें जमींदार का पहला आगमन था। घर-घर नजराने देने की तैयारियॉँ होने लगीं। पांचतें दिन शाम के वक्त हीरामणि गांव में दाखिल हुए। दही और चावल का तिलक लगाया गया और तीन सौ असामी पहर रात तक हाथ बांधे हुए उनकी सेवा में खड़े रहे। सवेरे मुख्तारेआम ने असामियों का परिचय कराना शुरू किया। जो असामी जमींदार के सामने आता वह अपनी बिसात के मुताबिक एक या दो रुपये उनके पांव पर रख देता । दोपहर होते-होते पांच सौ रुपयों का ढेर लगा हुआ था।
हीरामणि को पहली बार जमींदारी का मजा मिला, पहली बार धन और बल का नशा महसूस हुआ। सब नशों से ज्यादा तेज, ज्यादा घातक धन का नशा है। जब असामियों की फेहरिस्त खतम हो गयी तो मुख्तार से बोले—और कोई असामी तो बाकी नहीं है?
मुख्तार—हां महाराज, अभी एक असामी और है, तखत सिंह।
हीरामणि—वह क्यों नहीं आया ?
मुख्तार—जरा मस्त है।
हीरामणि—मैं उसकी मस्ती उतार दूँगा। जरा कोई उसे बुला लाये।
थोड़ी देर में एक बूढ़ा आदमी लाठी टेकता हुआ आया और दण्डवत् करके जमीन पर बैठ गया, न नजर न नियाज। उसकी यह गुस्ताखी देखकर हीरामणि को बुखार चढ़ आया। कड़ककर बोले—अभी किसी जमींदार से पाला नही पड़ा हैं। एक-एक की हेकड़ी भुला दूँगा!
तखत सिंह ने हीरामणि की तरफ गौर से देखकर जवाब दिया—मेरे सामने बीस जमींदार आये और चले गये। मगर कभी किसी ने इस तरह घुड़की नहीं दी।
यह कहकर उसने लाठी उठाई और अपने घर चला आया।
बूढ़ी ठकुराइन ने पूछा—देखा जमींदार को कैसे आदमी है?
तखत सिंह—अच्छे आदमी हैं। मैं उन्हें पहचान गया।
ठकुराइन—क्या तुमसे पहले की मुलाकात है।
तखत सिंह—मेरी उनकी बीस बरस की जान-पहिचान है, गुड़ियों के मेलेवली बात याद है न?
उस दिन से तखत सिंह फिर हीरामणि के पास न आया।
४
छ: महीने के बाद रेवती को भी श्रीपुर देखने का शौक हुआ। वह और उसकी बहू और बच्चे सब श्रीपुर आये। गॉँव की सब औरतें उससे मिलने आयीं। उनमें बूढ़ी ठकुराइन भी थी। उसकी बातचीत, सलीका और तमीज देखकर रेवती दंग रह गयी। जब वह चलने लगी तो रेवती ने कहा—ठकुराइन, कभी-कभी आया करना, तुमसे मिलकर तबियत बहुत खुश हुई।
इस तरह दोनों औरतों में धीरे-धीरे मेल हो गया। यहाँ तो यह कैफियत थी और हीरामणि अपने मुख्तारेआम के बहकाते में आकर तखत सिंह को बेदखल करने की तरकीबें सोच रहा था।
जेठ की पूरनमासी आयी। हीरामणि की सालगिरह की तैयारियॉँ होने लगीं। रेवती चलनी में मैदा छान रही थी कि बूढ़ी ठकुराइन आयी। रेवती ने मुस्कराकर कहा—ठकुराइन, हमारे यहॉँ कल तुम्हारा न्योता है।
ठकुराइन-तुम्हारा न्योता सिर-आँखों पर। कौन-सी बरसगॉँठ है?
रेवती उनतीसवीं।
ठकुराइन—नरायन करे अभी ऐसे-ऐसे सौ दिन तुम्हें और देखने नसीब हो।
रेवती—ठकुराइन, तुम्हारी जबान मुबारक हो। बड़े-बड़े जन्तर-मन्तर किये हैं तब तुम लोगों की दुआ से यह दिन देखना नसीब हुआ है। यह तो सातवें ही साल में थे कि इसकी जान के लाले पड़ गये। गुड़ियों का मेला देखने गयी थी। यह पानी में गिर पड़े। बारे, एक महात्मा ने इसकी जान बचायी । इनकी जान उन्हीं की दी हुई हैं बहुत तलाश करवाया। उनका पता न चला। हर बरसगॉँठ पर उनके नाम से सौ रुपये निकाल रखती हूँ। दो हजार से कुछ ऊपर हो गये हैं। बच्चे की नीयत है कि उनके नाम से श्रीपुर में एक मंदिर बनवा दें। सच मानो ठकुराइन, एक बार उनके दर्शन हो जाते तो जीवन सफल हो जाता, जी की हवस निकाल लेते।
रेवती जब खामोश हुई तो ठकुराइन की आँखों से आँसू जारी थे।
दूसरे दिन एक तरफ हीरामणि की सालगिरह का उत्सव था और दूसरी तरफ तखत सिंह के खेत नीलाम हो रहे थे।
ठकुराइन बोली—मैं रेवती रानी के पास जाकर दुहाई मचाती हूँ।
तखत सिंह ने जवाब दिया—मेरे जीते-जी नहीं।
५
असाढ़ का महीना आया। मेघराज ने अपनी प्राणदायी उदारता दिखायी। श्रीपुर के किसान अपने-अपने खेत जोतने चले। तखतसिंह की लालसा भरी आँखें उनके साथ-साथ जातीं, यहॉँ तक कि जमीन उन्हें अपने दामन में छिपा लेती।
तखत सिंह के पास एक गाय थी। वह अब दिन के दिन उसे चराया करता। उसकी जिन्दगी का अब यही एक सहारा था। उसके उपले और दूध बेचकर गुजर-बसर करता। कभी-कभी फाके करने पड़ जाते। यह सब मुसीबतें उसने झेंलीं मगर अपनी कंगाली का रोना रोने केलिए एक दिन भी हीरामणि के पास न गया। हीरामणि ने उसे नीचा दिखाना चाहा था मगर खुद उसे ही नीचा देखना पड़ा, जीतने पर भी उसे हार हुई, पुराने लोहे को अपने नीच हठ की आँच से न झुका सका।
एक दिन रेवती ने कहा—बेटा, तुमने गरीब को सताया, अच्छा न किया।
हीरामणि ने तेज होकर जवाब दिया—वह गरीब नहीं है। उसका घमण्ड मैं तोड़ दूँगा।
दौलत के नशे में मतवाला जमींदार वह चीज तोड़ने की फिक्र में था जो कहीं थी ही नहीं। जैसे नासमझ बच्चा अपनी परछाईं से लड़ने लगता है।
६
साल भर तखतसिंह ने ज्यों-त्यों करके काटा। फिर बरसात आयी। उसका घर छाया न गया था। कई दिन तक मूसलाधर मेंह बरसा तो मकान का एक हिस्सा गिर पड़ा। गाय वहॉँ बँधी हुई थी, दबकर मर गयीं तखतसिंह को भी सख्त चोट आयी। उसी दिन से बुखार आना शुरू हुआ। दवा –दारू कौन करता, रोजी का सहारा था वह भी टूटा। जालिम बेदर्द मुसीबत ने कुचल डाला। सारा मकान पानी से भरा हुआ, घर में अनाज का एक दाना नहीं, अंधेरे में पड़ा हुआ कराह रहा था कि रेवती उसके घर गयी। तखतसिंह ने आँखें खोलीं और पूछा—कौन है?
ठकुराइन—रेवती रानी हैं।
तखतसिंह—मेरे धन्यभाग, मुझ पर बड़ी दया की ।
रेवती ने लज्जित होकर कहा—ठकुराइन, ईश्वर जानता है, मैं अपने बेटे से हैरान हूँ। तुम्हें जो तकलीफ हो मुझसे कहो। तुम्हारे ऊपर ऐसी आफत पड़ गयी और हमसे खबर तक न की?
यह कहकर रेवती ने रुपयों की एक छोटी-सी पोटली ठकुराइन के सामने रख दी।
रुपयों की झनकार सुनकर तखतसिंह उठ बैठा और बोला—रानी, हम इसके भूखे नहीं है। मरते दम गुनाहगार न करो ।
दूसरे दिन हीरामणि भी अपने मुसाहिबों को लिये उधर से जा निकला। गिरा हुआ मकान देखकर मुस्कराया। उसके दिल ने कहा, आखिर मैंने उसका घमण्ड तोड़ दिया। मकान के अन्दर जाकर बोला—ठाकुर, अब क्या हाल है?
ठाकुर ने धीरे से कहा—सब ईश्वर की दया है, आप कैसे भूल पड़े?
हीरामणि को दूसरी बार हार खानी पड़ी। उसकी यह आरजू कि तखतसिंह मेरे पॉँव को आँखों से चूमे, अब भी पूरी न हुई। उसी रात को वह गरीब, आजाद, ईमानदार और बेगरज ठाकुर इस दुनिया से विदा हो गया।
७
बूढ़ी ठकुराइन अब दुनिया में अकेली थी। कोई उसके गम का शरीक और उसके मरने पर आँसू बहानेवाला न था। कंगाली ने गम की आँच और तेज कर दी थीं जरूरत की चीजें मौत के घाव को चाहे न भर सकें मगर मरहम का काम जरूर करती है।
रोटी की चिन्ता बुरी बला है। ठकुराइन अब खेत और चरागाह से गोबर चुन लाती और उपले बनाकर बेचती । उसे लाठी टेकते हुए खेतों को जाते और गोबर का टोकरा सिर पर रखकर बोझ में हॉँफते हुए आते देखना बहुत ही दर्दनाक था। यहाँ तक कि हीरामणि को भी उस पर तरस आ गया। एक दिन उन्होंने आटा, दाल, चावल, थालियों में रखकर उसके पास भेजा। रेवती खुद लेकर गयी। मगर बूढ़ी ठकुराइन आँखों में आँसू भरकर बोला—रेवती, जब तक आँखों से सूझता है और हाथ-पॉँव चलते हैं, मुझे और मरनेवाले को गुनाहगार न करो।
उस दिन से हीरामणि को फिर उसके साथ अमली हमदर्दी दिखलाने का साहस न हुआ।
एक दिन रेवती ने ठकुराइन से उपले मोल लिये। गॉँव मे पैसे के तीस उपले बिकते थे। उसने चाहा कि इससे बीस ही उपले लूँ। उस दिन से ठकुराइन ने उसके यहॉँ उपले लाना बन्द कर दिया।
ऐसी देवियॉँ दुनिया में कितनी है! क्या वह इतना न जानती थी कि एक गुप्त रहस्य जबान पर लाकर मैं अपनी इन तकलीफों का खात्मा कर सकती हूँ! मगर फिर वह एहसान का बदला न हो जाएगा! मसल मशहूर है नेकी कर और दरिया में डाल। शायद उसके दिल में कभी यह ख्याल ही नहीं आया कि मैंने रेवती पर कोई एहसान किया।
यह वजादार, आन पर मरनेवाली औरत पति के मरने के बाद तीन साल तक जिन्दा रही। यह जमाना उसने जिस तकलीफ से काटा उसे याद करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कई-कई दिन निराहार बीत जाते। कभी गोबर न मिलता, कभी कोई उपले चुरा ले जाता। ईश्वर की मर्जी! किसी की घर भरा हुआ है, खानेवाल नहीं। कोई यो रो-रोकर जिन्दगी काटता है।
बुढ़िया ने यह सब दुख झेला मगर किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया।
८
हीरामणि की तीसवीं सालगिरह आयी। ढोल की सुहानी आवाज सुनायी देने लगी। एक तरफ घी की पूड़ियां पक रही थीं, दूसरी तरफ तेल की। घी की मोटे ब्राह्मणों के लिए, तेल की गरीब-भूखे-नीचों के लिए।
अचानक एक औरत ने रेवती से आकर कहा—ठकुराइन जाने कैसी हुई जाती हैं। तुम्हें बुला रही हैं।
रेवती ने दिल में कहा—आज तो खैरियत से काटना, कहीं बुढ़िया मर न रही हो।
यह सोचकर वह बुढ़िया के पास न गयी। हीरामणि ने जब देखा, अम्मॉँ नहीं जाना चाहती तो खुद चला। ठकुराइन पर उसे कुछ दिनों से दया आने लगी थी। मगर रेवती मकान के दरवाजे ते उसे मना करने आयी। या रहमदिल, नेकमिजाज, शरीफ रेवती थी।
हीरामणि ठकुराइन के मकान पर पहुँचा तो वहॉँ बिल्कुल सन्नाटा छाया हुआ था। बूढ़ी औरत का चेहरा पीला था और जान निकलने की हालत उस पर छाई हुई थी। हीरामणि ने जो से कहा—ठकुराइन, मैं हूँ हीरामणि।
ठकुराइन ने आँखें खोली और इशारे से उसे अपना सिर नजदीक लाने को कहा। फिर रुक-रुककर बोली—मेरे सिरहाने पिटारी में ठाकुर की हड्डियॉँ रखी हुई हैं, मेरे सुहाग का सेंदुर भी वहीं है। यह दोनों प्रयागराज भेज देना।
यह कहकर उसने आँखें बन्द कर ली। हीरामणि ने पिटारी खोली तो दोनों चीजें हिफाजत के साथ रक्खी हुई थीं। एक पोटली में दस रुपये भी रक्खे हुए मिले। यह शायद जानेवाले का सफरखर्च था!
रात को ठकुराइन के कष्टों का हमेशा के लिए अन्त हो गया।
उसी रात को रेवती ने सपना देखा—सावन का मेला है, घटाएँ छाई हुई हैं, मैं कीरत सागर के किनारे खड़ी हूँ। इतने में हीरामणि पानी में फिसल पड़ा। मै छाती पीट-पीटकर रोने लगी। अचानक एक बूढ़ा आदमी पानी में कूदा और हीरामणि को निकाल लाया। रेवती उसके पॉँव पर गिर पड़ी और बोली—आप कौन है?
उसने जवाब दिया—मैं श्रीपुर में रहता हूँ, मेरा नाम तखतसिंह है।
श्रीपुर अब भी हीरामणि के कब्जे में है, मगर अब रौनक दोबाला हो गयी है। वहॉँ जाओ तो दूर से शिवाले का सुनहरा कलश दिखाई देने लगता है; जिस जगह तखत सिंह का मकान था, वहॉँ यह शिवाला बना हुआ है। उसके सामने एक पक्का कुआँ और पक्की धर्मशाला है। मुसाफिर यहॉँ ठहरते हैं और तखत सिंह का गुन गाते हैं। यह शिवाला और धर्मशाला दोनों उसके नाम से मशहूर हैं।